Wednesday, June 17, 2020

अपनों से बढ़ती दूरियाँ ! हर छटा भारतीय डिप्रेशन का शिकार

अपनों से बढ़ती दूरियाँ ! हर छटा भारतीय डिप्रेशन का शिकार 
दोस्तों की महफ़िल सजे जमाना हो गया ,  लगता है जैसे खुल के जिए एक जमाना हो गया। 
काश कहीं मिल जाए वो काफिला दोस्तों का, जिंदगी जिये एक जमाना हो गया। 
अधिक भौतिकतावाद 
आज की जिंदगी क्या सच में ऐसी हो गई है ? यदि देखा जाए तो हर वक्त ऐसा नहीं था ? पिछले दो दशकों में भारत की पृष्ठभूमि में काफी परिवर्तन आया है। हम अपने प्राचीन परिवेश को छोड़कर भौतिकवाद की ओर आकर्षित हुए है। सफलता के मायने बदल चुके है। रिश्तों की जगह पैसों ने ले ली है। कम से कम समय में अधिक से अधिक आर्थिक आजादी पाने के लिए समाज का हर वर्ग दिन रात की सीमाओं को लाँगते हुए काम पर लगा हुआ है। वैसे तो हमारे देश में बेरोजगारी भी अपने चरम पर है लेकिन जिसको काम करना है उसके लिए दिन रात काम है। छोटे दुकानदार से लेकर बड़े बड़े से व्यापारी के लिए हर समय एक गला काट पर्तिस्पर्धा हो रही है। इस खेल में जीत हासिल करने के लिए हम खुद के लिए और परिवार के लिए समय नहीं निकाल पा रहे है और जब हमारे पास खुद के लिए और परिवार के लिए समय ही नहीं है तो पड़ोसियों के लिए कहां से समय होगा। 
हम अपनी महत्वक्षाओं के बीच निरंतर तनाव पूर्ण जीवन जी रहे है। और इस तनाव के कारण हम अकेले पड़ते जा रहे है, हम एक दूसरे से बात करने से डरने लगते है, हम दोस्त दुश्मन में अंतर नहीं कर पाते है। कई बार तो हम बात करने का साहस जुटाते भी है तो तब और भी तनाव बढ़ जाता है जब अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता है । और शायद हम कई बार अपने दोस्तों या करीबियों को खोने के डर से भी अपनी वास्तविक स्थिति पर चर्चा नहीं कर पाते है। लेकिन इसमें कसूर केवल किसी एक पक्ष का नहीं होता, इसमें दोनों ही पक्ष बराबर की भूमिका निभाते है। क्योंकि आखिर हम सब है तो इसी समाज का अंग और समाज में हर तरह के रंग शामिल है। पद एवंम प्रतिष्ठा 
 आज के समय में सामाजिक सहभागिता को समय की बर्बादी के तौर पर देखा जाता है। हम ज्यों ज्यों सफलता की अग्रसर होते जाते है त्यों त्यों समाज से दूर होते जाते है।  क्योंकि हम कभी भी असफल लोगों के साथ खड़ा होना या उनके साथ समय बिताना पसंद नहीं करते। लेकिन हर व्यक्ति के जीवन में वही क्षण लौटकर आते है फिर से हमे उसी समाज की जरूरत महसूस होने लगती है, जब बुढ़ापा आने लगता है, औलाद अपने काम धंधे में व्यस्त हो जाती है और अपने पास कोई काम नहीं रह जाता है। तब हमे अकेलेपन का एहसास होता है। यदि हम अपनों का ख्याल रखे, उनके सुख दुःख में शामिल हो तो यही प्यार हमारे लिए सुरक्षा का काम भी करता है। पद और प्रतिष्ठा सफल व्यक्ति की पहचान से जुड़े है लेकिन हमें किसी भी सूरत में मानवीय और सामाजिक गुणों को नहीं छोड़ना चाहिए। 
जानकारी का आभाव 
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकड़ों के अनुसार भारत की 36% जनसंख्या अवसादग्रस्त है। भारत और चीन डिप्रेशन के मामलों में सबसे  प्रभावित देशों में शमिल है।  यहाँ पर लोगों की एक मुख्य समस्या 'चिंता' होना है।चिंता के कारण आत्महत्या के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है। दूसरे यहां पर इस समस्या को बीमारी न मानना, हम चिंता व अवसाद को कोई बीमारी ही नहीं मानते और यही वजह है कि जब बात हाथ से निकल चुकी होती है तब जाकर डाक्टरी इलाज की सोची जाती है। भारत में लगभग 12% युवा डिप्रेशन का शिकार है। महिलाओं की संख्या पुरषों से भी ज्यादा है। अमेरिकी रिसर्च के अनुसार अकेलेपन से शरीर को उतना ही नुकसान होता है जितना हर रोज 15 सिगरेट पीने से होता है। विशेषज्ञों की राय में सबसे आम बीमारी ह्रदय रोग और डायबटीज नहीं बल्कि अकेलापन है। 
सोशल मीडिया वजह और हल दोनों 
वैसे तो आजकल सोशल मीडिया को युवाओं में अकलेपन की सबसे बड़ी वजह मन जा रहा है। फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसी सोशल साइट पर सैकड़ों दोस्त होते है, लेकिन असल में वो दोस्त नहीं है जो उनके साथ अपनेपन का अहसास करा सके. ऐसे दोस्त जो किसी को गलत करने से रोक सके। ऐसे दोस्त जो परिवार के सदस्यों की तरह हों, जिनका साथ होने से माँ बाप फिक्रमंद न हो। सोशल मीडिया पर इसका हल भी मिल जाता है इसके जरिये हम दुनिया भर के लोगों के अनुभव का लाभ उठा सकतें है। माना कि काम जरूरी है लेकिन यदि स्वास्थ्य उससे भी ज्यादा जरूरी है, यदि स्वस्थ रहेगें तो सभी सुख भोग सकते हैं, वरना काम करने के लायक भी नहीं रहेंगे ।

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