भारत में बेरोज़गारी हर सरकार के लिए एक मुख्य समस्या रही है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस समस्या का हल नहीं करना चाहती होगी। किसी भी सरकार की कामयाबी में रोजगार देना एक अहम् मुद्दा होता है। फिर चाहे वो रोजगार सरकारी क्षेत्र में हो या निजी क्षेत्र में हो। सभी पार्टियों के चुनावी घोषणा पत्र में बेरोजगारी की समस्या को हल करने का वादा किया जाता है। लेकिन कोई भी पार्टी सत्ता में आने के बाद इस वादे पर खरी नहीं उतरती। बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। 
देखिये मै भी कोई स्पैशल एनालिस्ट तो नहीं हूँ बस अपने विचार आप के साथ शेयर कर रहा हूँ। आप मेरे विचार से सहमत भी हो सकते है नहीं भी। क्योंकि किसी समस्या को देखने का सबका अपना अपना नजरिया होता है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है। यहां के 60% लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़े हुए है और यही उनका प्राथमिक व्यवसाय भी है। अंग्रेजों के भारत में आने से पहले यहां की शिक्षा पद्धति ऐसी थी की हमे शिक्षा के साथ उन कार्यों को भी सिखाया जाता था जो हमारी रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े हुए थे। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी को आत्मनिर्भर होना सिखाया जाता था ताकि वो अपने और अपने परिवार का भरण पोषण कर सके। उसके सामने रोजी रोटी का संकट ना आए ऐसी शिक्षा विद्यार्थियों को दी जाती थी। 
लेकिन अंग्रेजी शासन में शिक्षा की व्यवस्था केवल कर्मचारी पैदा करने वाली हो गई। अंग्रेजो ने हमे शिक्षित तो किया लेकिन केवल संवाद करने के लिए और नौकरी करने के लिए। उनकी व्यापार की नीति और केवल लाभ कमाने की नीति थी । जिससे हमारा वो कौशल नष्ट हो गया जो हमें आत्मनिर्भर बनाता था। हम खुद उन पर निर्भर हो गए। खेती में भी हम केवल वही फसलें पैदा कर सकते थे जिनकी अंग्रेजों को जरूरत होती थी। इस प्रकार से अंग्रेजो ने हमें पूरी तरह से अपनी पहचान और अपनी संस्कृति से दूर कर दिया। जिससे हम रोजगार देने के स्थान पर रोजगार लेने वालों की लाइन में लग गए। 
आजादी के 70 साल बाद भी हम उसी शिक्षा पद्धति पर चल रहे हैं। अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा हम पर ऐसी थोपी आज भी हम उसे छोड़ नहीं पाए हैं। अंग्रेजी भाषा न जानने वालों को हम अनपढ़ की श्रेणी में गिनते हैं। कितने बच्चे इस अंग्रेजी भाषा की वजह से अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं। कितने बच्चे को ये ही पता नहीं होता कि मैथ और साइंस के फार्मूले कहां पर काम आंएगे और उनको याद न कर पाने की वजह से उनकी पढ़ाई बीच में छूट गई। हर मां बाप अपने बच्चों को बचपन से ही यही सिखाते हैं ' बेटा 90-95% मार्क्स लेने है जितने ज्यादा मार्क्स उतनी बड़ी नौकरी '। हम बच्चों को नौकर बनने के लिए प्रेरित करते हैं, मालिक बनने के लिए नहीं। और हद तो तब हो जाती है जब बच्चे इतने मार्क्स ले भी लेते हैं लेकिन उनको नौकरी नहीं मिलती। दरअसल हमारे पढ़े लिखे 70% युवा उन नौकरियों के काबिल ही नहीं होते। दूसरा कारण भारत के बहुत से प्रतिभा संपन्न युवाओं को यहां पर मौका ही नहीं मिलता अपनी काबिलियत को निखारने और प्रयोग करने का। ऐसे युवा दूसरे देशों की ओर जाने पर मजबूर हो जाते हैं। अब तक 12 नोबेल पुरस्कार विजेता ऐसे रहे हैं जिनका संबंध भारत से रहा है लेकिन केवल रबीन्द्रनाथ टैगोर और सर सीवी रमन ही ऐसे थे जिनके पास भारतीय नागरिकता थी। बाकी दूसरे देशों की नागरिकता ले चुके थे। इतना ही नहीं कितने भारतीय दूसरे देशों में डॉक्टर, इंजिनियर, साइंटिस्ट और बड़ी बड़ी कंपनियों में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर रहे हैं। 
यदि इन सबको अपने देश में काम करने के अवसर उपलब्ध होते तो इनको बाहर जाने की आवश्यकता नहीं होती और इनके ज्ञान और अनुभव का पूरा लाभ भारत को मिलता। हमारी सरकारें आत्मनिर्भर बनाने की तो बात करते हैं लेकिन अवसर पैदा नहीं करते। साल 2019-20 में भारत का कुल बजट करीब 28 लाख करोड़ रु था, वही चीन 10 महीनों में 29 लाख करोड़ रुपए केवल शिक्षा पर खर्च कर चुका था। जबकि भारत का शिक्षा बजट 94 हजार करोड़ रुपए था। भारत में न तो कभी संसाधनों की कमी थी और न ज्ञान की कमी थी तो केवल सरकार की भूमिका की और वही आज भी है। आज हर किसी को धर्म, जात, राजनीति और नेता की चिंता है लेकिन अपने बच्चों के भविष्य की  चिंता नहीं है। हमारा मीडिया दिन रात बेमतलब के लिए मुद्दों के लिए कई कई दिन, कई कई महीने बहस कर सकता है लेकिन ऐसे मुद्दे मीडिया के लिए दोयम दर्जे के है। हमारी शिक्षा पद्धति में व्यापक बदलाव की जरूरत है तभी हम विश्वगुरु के सपने को साकार कर पाएंगे।


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