Friday, July 24, 2020

आया राम गया राम : भारतीय राजनीती के रोचक किस्से

आया राम गया राम : भारतीय राजनीती के रोचक किस्से 
भारत विश्व में सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। और एक लोकतान्त्रिक देश में राजनीति का ऊंट कब कौन सी करवट लेगा ये कोई नहीं जानता। यहाँ तक की जनता जिस नेता और जिस पार्टी को चुनकर भेजते है वो कब किसकी सरकार गिरा दे और किसकी सरकार बनवा दे, ये कहना बहुत मुश्किल है। और इसी सत्ता के खेल में जनता की भावनाओं को रोंधकर स्वार्थ की कुर्सी पर कब्ज़ा किया जाता है। भारतीय राजनीति में नेताओं का दल बदलना बड़ी आम सी बात हो गई है।  इसी कारण नेताओं को दल बदलू भी कहा जाता है। किसी भी पार्टी में कई कई साल तक रहने के बावजूद बहुत से नेता पार्टी बदल लेते है और कारण बताते है पार्टी में उचित सम्मान न मिलना। और ये सब किसी नेता, विधायक या सांसद के लिए कोई नहीं बात नहीं है। भारत में दल बदलने की इस परम्परा को 'आया राम गया राम' के नाम से खूब जाना जाता है। 'आया राम गया राम' वाक्य किस प्रकार प्रचलित हुआ, यह एक बड़ा रोचक किस्सा है। 
बात 1967 की है जब हरियाणा विधान सभा के लिए पहली बार चुनाव हुए थे। उस समय हरियाणा विधान सभा में 81 सीटें थी। 1967 के चुनावों में कुल 16 निर्दलीय विधायक चुनकर आये थे। गया लाल भी उनमें से एक थे। गया लाल हरियाणा के पलवल ज़िले के हसनपुर विधान सभा क्षेत्र से विधायक चुने गए थे। चुनाव नतीजे आने के बाद तेजी से बदले घटनाक्रम में गया लाल कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन उसी दिन वो जनता पार्टी में आ गए। लेकिन फिर से गया लाल का मन बदला और 9 घंटे बाद फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए। इस प्रकार  गया लाल ने एक ही दिन में 3 बार पार्टी बदली। बाद में पार्टी नेता राव बीरेंदर सिंह गया लाल को लेकर प्रेस वार्ता करने के लिए चंडीगढ़ ले गए और पत्रकारों को बताया कि गया राम अब आया राम है। राव बीरेंदर सिंह के इस ब्यान ने बाद में 'आया राम गया राम' कहावत का रूप ले लिया और देश में जब भी ऐसी दल बदलने की कोई घटना होती है तो 'आया राम गया राम' कहावत का खूब इस्तेमाल होता है। तो गया लाल ही वो विधायक थे जिन्होंने 'आया राम गया राम' वाक्य को अमर कर दिया। हरियाणा में आया राम गया राम की रवायत ऐसी रही कि बाद में 1968 में फिर से विधान सभा चुनाव करवाने पड़े। 
बाद में भी हरियाणा में कई बार ऐसा ही हुआ और सरकारे दल बदलू विधायकों ने बनाई और गिराई। आखिर में दल बदल से राहत पाने के लिए सविंधान संसोधन करके नया कानून बनाना पड़ा। दल बदल तो अब भी होता है लेकिन अब नए कानून से दल बदलना इतना आसान नहीं रह गया है। 

Saturday, July 18, 2020

क्या मार्कसीट ही सफलता का पैमाना है ?

दोस्तों आज कल 10वीं व 12वीं के परीक्षा परिणाम घोषित हो रहे हैं और बहुत से विद्यार्थियों को अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं आने के कारण निराशा और चिंता ने  घेर लिया है। ऐसे में हर रोज ख़बरें आती है कि परीक्षा परिणाम अच्छा नहीं आने के कारण कई विद्यार्थी गलत कदम उठा रहे हैं और अवसाद ग्रस्त हो रहे हैं। उनके परिजन भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। दरअसल ये भावना हमारे पूरे समाज में समा चुकी है कि बिना अच्छे मार्क्स के हम कभी भी कामयाब नहीं हो सकते। हम लोगों ने जीवन की सफलता को स्कूल की पढ़ाई से जोड़ दिया है। और पढ़ाई भी वो जो हमारे देश और हमारी संस्कृति से मेल ही नहीं खाती है।
 यदि हम किसी दूसरे देश में जाकर वहां के नागरिकों से ये कहे कि आप लोग हिंदी मीडियम से अपनी पढ़ाई करें तो क्या वो लोग उसको अच्छी तरह से कर पाएंगें? 
दूसरी बात क्या हमारे देश में बच्चों की पढ़ाई के साथ अभिभावकों की काउसिलिंग भी होनी चाहिए ? क्योंकि बच्चों पर पढ़ाई का सबसे ज्यादा दबाव मां बाप द्वारा ही दिया जाता है । आज तक ज्यादातर अभिभावकों को यही लगता है कि 10वीं व 12वीं में ज्यादा से ज्यादा मार्क्स हैं सफलता की सीढ़ी है। 
तीसरी बात हमारी शिक्षा पद्धति शिक्षित तो कर रही है लेकिन वो रोजगार देने में असमर्थ है। एक अध्ययन के अनुसार भारत के 80% इंजीनियरिंग ग्रेजुएट किसी नौकरी पाने के काबिल नहीं है। इसी तरह से अन्य विषयों का भी कुछ कुछ यही हाल है। 
दरअसल ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को बचपन से ही यही सिखाते हैं कि ज्यादा से ज्यादा मार्क्स ले के आओ। जितने ज्यादा मार्क्स उतनी बड़ी नौकरी। तो बच्चों पर मार्क्स लेने का दबाव बढ़ता रहता है और बहुत से बच्चे इस दबाव से अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं। और जब उनके रिजल्ट अपेक्षा के अनुरूप नहीं आते तो वे गलत कदम उठा लेते हैं। 
तारे जमीन पर, थ्री ईडियट्स ऐसी ही और भी कई फिल्में है जिनके द्वारा ये दिखाने की कोशिश की गई कि हमें सफलता के पीछे नहीं भागना है, हमें काबिलियत के पीछे भागना है। यदि हम काबिल होंगे तो सफलता झख मार के भी मिलेगी। कई बार क्या होता है हम अपने बच्चों से वो करवाने की कोशिश करते हैं जिसमें उनका कोई interest नहीं होता है। तो बच्चा उस फील्ड में हमेशा पीछे रह जाता है और वो सोचता उसी की मेहनत में कमी है, अभिभावक भी बच्चे की ही कमी निकलते हैं। एक अकेला बच्चा अपने सपने को पूरा नहीं करता है बल्कि अपने मां बाप के सपने को पूरा करने के लिए मेहनत करता है। 
हम में से कितने ऐसे मां बाप है जो अपने बच्चे से पूछते हैं कि उसे क्या पसंद है, वह क्या करना चाहता है, क्या बनना चाहता है। बस हम उसे बस्ता देकर कह देते हैं तुझे फलां के बच्चे से ज्यादा मार्क्स लेने है । एक बच्चे पर मां बाप, पड़ोसी, रिश्तेदार, स्कूल, अपनी क्लास के बच्चे का दबाव होता है। अब इतने प्रेसर में कोई नॉर्मल कैसे रह सकता है। भारत की जनसंख्या 135 करोड़ है लेकिन आज भी हम खेलों में विश्व स्तर पर गिनती में बहुत पीछे खड़े नजर आते हैं। हमारे बच्चे 90% से ऊपर अंक लेते हैं लेकिन उनमें से कितने बच्चे ऐसे है जो किसी फील्ड में विश्व स्तर पर कोई सफलता हासिल कर पाया हो। आज 10वीं व 12वीं के रिजल्ट आने पर सोशल मीडिया पर अपने बच्चों के रिजल्ट बताने वालों की बाड़ आई हुई है और ये सब वो लोग है जिनके बच्चों ने 90% से ज्यादा मार्क्स लिए है। 90% से कम मार्क्स लेने वालों ने अपने बच्चों का रिजल्ट सोशल मीडिया पर शेयर नहीं किया। मतलब बाकी बच्चों का रिजल्ट कोई मायने नहीं रखता । लेकिन क्या आप लोगों ने कभी नोट किया कि इनमें से कितने बच्चे किसी खास फील्ड में कामयाब हुए है। या जो बच्चे कामयाब है उनके 10वीं, 12वीं में कितने मार्क्स आए थे। 
इस साल सीबीएसई बोर्ड की 12 वीं परीक्षा में 12 लाख बच्चे शामिल हो रहे है। हर राज्य का अपना स्टेट बोर्ड अलग है। उप्र स्टेट बोर्ड में इस वर्ष 23 लाख छात्रों ने परीक्षा दी थी। इस प्रकार से देखा जाये तो हर वर्ष करोड़ों बच्चे 12 वीं की परीक्षा पास करते है और लाखों 90% से ऊपर मार्क्स लेते है। लेकिन इनमें से कितने बच्चे ऐसे है जो असल जिंदगी में कामयाब हो पाते है। या जिनको अपनी पढ़ाई का पूरा क्रेडिट मिल पाता है। लाखों बच्चे तो ऐसे होते है जिनके अवसर ही नहीं मिलता अपनी क़ाबलियत दिखाने का। उनको मज़बूरी में कही ढेला लगाकर अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी का बंदोबस्त करना होता है। बहुत से बच्चों को आरक्षण का जिन आगे नहीं बढ़ने देता। वो जहां भी जाते है आरक्षण का जिन उनको आगे खड़ा मिलता है। हमारे देश में बच्चों को पढ़ने के अवसर नहीं मिल पाते है, टेक्निकल एजुकेशन की तो छोड़िये आर्ट्स पढ़ने के लिए भी कॉलेज उपलब्ध नहीं हो पा रहे है। खासकर दूर दराज और गावों में रहने वाली लड़कियों के लिए हालात इससे भी बुरे है। 
अच्छे मार्क्स लेना अच्छी बात है लेकिन अपने उन बच्चों को भी मत भूलों जिनके कम मार्क्स आए हैं। अच्छे मार्क्स कभी भी इस बात की गारंटी नहीं होती कि वो कामयाब होगा। जहां तक संभव हो सके बच्चों को वो सिखाए जो उनका पैशन बन सके। इसका एक फायदा ये होगा कि बच्चा उस काम को कम से कम सुविधाओं में भी करेगा। क्योंकि वो उसका पैशन है। इसलिए अपने बच्चों को अच्छी तालीम के साथ साथ अच्छे संस्कार, जीवन जीने का कला और अच्छा हुनर भी सिखाएं जिसमें उनकी रुचि हो फिर आपका हर बच्चा कामयाब होगा। और भारत आत्मनिर्भर भी होगा।
Friends, today the 10th and 12th exam results are being announced and many students are surrounded by disappointment and anxiety due to not getting the results as expected. In such a situation, everyday news comes that many students are taking wrong steps and suffering from depression due to poor results. Their families are also going through the same circumstances. Actually, this feeling has seeped into our whole society that without good marks we can never succeed. We have associated the success of life with school education. And also the study which does not match our country and our culture.
 If we go to another country and tell the citizens of that country that you should do your studies with Hindi medium, will they be able to do it well?
Secondly, should there be counseling of parents along with education of children in our country? Because most of the pressure on children is given by the parents. Till date most of the parents feel that there are more and more marks in 10th and 12th is the ladder to success.
Thirdly, our education system is educating, but it is unable to provide employment. According to a study, 80% of India's engineering graduates are not eligible to get a job. Similarly, other subjects also have the same condition.
In fact, most parents teach their children from childhood that they should bring maximum marks. The more marks, the bigger the job. So the pressure on children to take marks keeps increasing and many children suffer depression due to this pressure. And when their results do not come as expected, they take the wrong step.
On Taare Zameen, Three Idiots are many other films that have tried to show that we do not want to run after success, we have to run after ability. If we are able, then we will get success too What happens many times, we try to get our children to do that in which they have no interest. So the child is always left behind in that field and he thinks that he is lacking in hard work, parents are also lacking in the child. A single child does not fulfill his dream but works hard to fulfill the dream of his parents.
How many of us have such parents who ask their child what he likes, what he wants to do, what he wants to be. We just give him a bag and tell you to take more marks than a child of such and such. A child is under pressure from parents, neighbors, relatives, schools, children of his class. Now how can anyone be normal in such a pressure? The population of India is 135 crores but even today, we are standing far behind in the world level in sports. Our children score above 90%, but how many of them have achieved success in any field globally. Today, on the 10th and 12th results, there is a fence on social media to tell the results of their children and these are all those people whose children have scored more than 90% marks. Those taking less than 90% of the marks did not share the results of their children on social media. Meaning the result of the rest of the children does not matter. But have you ever noted how many of these children have succeeded in a particular field. Or how many marks came in the 10th, 12th of the child who is successful.
This year, 12 lakh children are appearing in the CBSE Board 12th examination. Each state has its own state board. This year 23 lakh students had appeared in the UP State Board. In this way, every year, crores of children pass the 12th examination and lakhs take marks above 90%. But how many of these children are able to succeed in real life. Or who gets full credit for their studies. There are millions of children who do not get the opportunity to show their ability. They have to be forced to make a lump and to arrange for the bread of June 2 for their family. Many children are not allowed to proceed with reservations. Wherever they go, they get reservation in front of them. In our country, children are not able to get opportunities to study, except technical education, colleges are also not available for studying arts. The situation is even worse, especially for girls living in far flung and villages.

It is good to have good marks, but do not forget even those children who have fewer marks. Good marks are never a guarantee that they will succeed. As far as possible teach children what they can become a passion. One of the advantages of this is that the child will do that work in minimum facilities as well. Because that is his passion. Therefore, along with good training, teach your children good rites, art of living and good skills in which they are interested and then every child of yours will succeed. And India will also be self-sufficient.

Friday, July 10, 2020

क्या भारतीय शिक्षा पद्धति बेरोज़गारी बढ़ा रही है ?

क्या भारतीय शिक्षा पद्धति बेरोज़गारी बढ़ा रही है ?
भारत में बेरोज़गारी हर सरकार के लिए एक मुख्य समस्या रही है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस समस्या का हल नहीं करना चाहती होगी। किसी भी सरकार की कामयाबी में रोजगार देना एक अहम् मुद्दा होता है। फिर चाहे वो रोजगार सरकारी क्षेत्र में हो या निजी क्षेत्र में हो। सभी पार्टियों के चुनावी घोषणा पत्र में बेरोजगारी की समस्या को हल करने का वादा किया जाता है। लेकिन कोई भी पार्टी सत्ता में आने के बाद इस वादे पर खरी नहीं उतरती। बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। 
देखिये मै भी कोई स्पैशल एनालिस्ट तो नहीं हूँ बस अपने विचार आप के साथ शेयर कर रहा हूँ। आप मेरे विचार से सहमत भी हो सकते है नहीं भी। क्योंकि किसी समस्या को देखने का सबका अपना अपना नजरिया होता है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है। यहां के 60% लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़े हुए है और यही उनका प्राथमिक व्यवसाय भी है। अंग्रेजों के भारत में आने से पहले यहां की शिक्षा पद्धति ऐसी थी की हमे शिक्षा के साथ उन कार्यों को भी सिखाया जाता था जो हमारी रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े हुए थे। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी को आत्मनिर्भर होना सिखाया जाता था ताकि वो अपने और अपने परिवार का भरण पोषण कर सके। उसके सामने रोजी रोटी का संकट ना आए ऐसी शिक्षा विद्यार्थियों को दी जाती थी। 
लेकिन अंग्रेजी शासन में शिक्षा की व्यवस्था केवल कर्मचारी पैदा करने वाली हो गई। अंग्रेजो ने हमे शिक्षित तो किया लेकिन केवल संवाद करने के लिए और नौकरी करने के लिए। उनकी व्यापार की नीति और केवल लाभ कमाने की नीति थी । जिससे हमारा वो कौशल नष्ट हो गया जो हमें आत्मनिर्भर बनाता था। हम खुद उन पर निर्भर हो गए। खेती में भी हम केवल वही फसलें पैदा कर सकते थे जिनकी अंग्रेजों को जरूरत होती थी। इस प्रकार से अंग्रेजो ने हमें पूरी तरह से अपनी पहचान और अपनी संस्कृति से दूर कर दिया। जिससे हम रोजगार देने के स्थान पर रोजगार लेने वालों की लाइन में लग गए। 
आजादी के 70 साल बाद भी हम उसी शिक्षा पद्धति पर चल रहे हैं। अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा हम पर ऐसी थोपी आज भी हम उसे छोड़ नहीं पाए हैं। अंग्रेजी भाषा न जानने वालों को हम अनपढ़ की श्रेणी में गिनते हैं। कितने बच्चे इस अंग्रेजी भाषा की वजह से अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं। कितने बच्चे को ये ही पता नहीं होता कि मैथ और साइंस के फार्मूले कहां पर काम आंएगे और उनको याद न कर पाने की वजह से उनकी पढ़ाई बीच में छूट गई। हर मां बाप अपने बच्चों को बचपन से ही यही सिखाते हैं ' बेटा 90-95% मार्क्स लेने है जितने ज्यादा मार्क्स उतनी बड़ी नौकरी '। हम बच्चों को नौकर बनने के लिए प्रेरित करते हैं, मालिक बनने के लिए नहीं। और हद तो तब हो जाती है जब बच्चे इतने मार्क्स ले भी लेते हैं लेकिन उनको नौकरी नहीं मिलती। दरअसल हमारे पढ़े लिखे 70% युवा उन नौकरियों के काबिल ही नहीं होते। दूसरा कारण भारत के बहुत से प्रतिभा संपन्न युवाओं को यहां पर मौका ही नहीं मिलता अपनी काबिलियत को निखारने और प्रयोग करने का। ऐसे युवा दूसरे देशों की ओर जाने पर मजबूर हो जाते हैं। अब तक 12 नोबेल पुरस्कार विजेता ऐसे रहे हैं जिनका संबंध भारत से रहा है लेकिन केवल रबीन्द्रनाथ टैगोर और सर सीवी रमन ही ऐसे थे जिनके पास भारतीय नागरिकता थी। बाकी दूसरे देशों की नागरिकता ले चुके थे। इतना ही नहीं कितने भारतीय दूसरे देशों में डॉक्टर, इंजिनियर, साइंटिस्ट और बड़ी बड़ी कंपनियों में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर रहे हैं। 
यदि इन सबको अपने देश में काम करने के अवसर उपलब्ध होते तो इनको बाहर जाने की आवश्यकता नहीं होती और इनके ज्ञान और अनुभव का पूरा लाभ भारत को मिलता। हमारी सरकारें आत्मनिर्भर बनाने की तो बात करते हैं लेकिन अवसर पैदा नहीं करते। साल 2019-20 में भारत का कुल बजट करीब 28 लाख करोड़ रु था, वही चीन 10 महीनों में 29 लाख करोड़ रुपए केवल शिक्षा पर खर्च कर चुका था। जबकि भारत का शिक्षा बजट 94 हजार करोड़ रुपए था। भारत में न तो कभी संसाधनों की कमी थी और न ज्ञान की कमी थी तो केवल सरकार की भूमिका की और वही आज भी है। आज हर किसी को धर्म, जात, राजनीति और नेता की चिंता है लेकिन अपने बच्चों के भविष्य की  चिंता नहीं है। हमारा मीडिया दिन रात बेमतलब के लिए मुद्दों के लिए कई कई दिन, कई कई महीने बहस कर सकता है लेकिन ऐसे मुद्दे मीडिया के लिए दोयम दर्जे के है। हमारी शिक्षा पद्धति में व्यापक बदलाव की जरूरत है तभी हम विश्वगुरु के सपने को साकार कर पाएंगे।

Sunday, July 5, 2020

5 जुलाई गुरु पूर्णिमा

5 जुलाई गुरु पूर्णिमा : 
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।
भारतीय संस्कृति में गुरु को विशेष महत्व दिया गया है। गुरु का स्थान भगवान से ऊपर माना गया है। कबीर जी ने अपनी वाणी में कहा है, गुरु और भगवान दोनों उसके सामने है किसके चरण पहले लागू, इस पर कबीर जी कहा है कि वह गुरु ही है जिन्होंने मुझे भगवान के दर्शन करवाए है। अतः पहले गुरु के चरण लगना चाहिए। 
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गुरु की विधि विधान से पूजा की जाती है। गुरु पूर्णिमा, वर्षा ऋतू के आरम्भ में आती है। 
संस्कृत में गुरु शब्द का अर्थ अज्ञान या अंधकार को मिटाने वाला होता है। गुरु साधक के अज्ञान को मिटाता है ताकि वह अपने भीतर ही सृष्टि के स्रोत का अनुभव कर सके। इस दिन साधक गुरु को अपना आभार प्रकट करते है और उनका  आशीर्वाद प्राप्त करते है। योग साधना और ध्यान का अभ्यास करने के लिए गुरु पूर्णिमा को विशेष लाभ देने वाला माना जाता है। 
भारत में अंग्रेजों के आने से पहले गुरु पूर्णिमा को अवकाश किया जाता था और लोग धार्मिक स्थलों पर जाकर अपनी खुशहाली के लिए प्रार्थना करते और अपने गुरु का आभार प्रकट करते थे। मानवता के इतिहास में इसी दिन को मनुष्यों को याद दिलाया गया कि उनका जीवन पहले से तय नहीं है यदि वे प्रयास करने के लिए तैयार है तो अस्तित्व का प्रत्येक दरवाजा उनके लिए खुला हुआ है। 
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
हमारे देश में कुछ समय पहले तक ऐसा ही माना जाता था कि हमारे जीवन में गुरु की विशेष महिमा है। गुरु सर्वोपरि है। 'गु' का अर्थ अंधकार और 'रु' का अर्थ हटाने वाला अर्थात अंधकार को हटाने वाला। हमारे देश में यह पर्व सबसे महत्वपूर्ण होता था। लोग इस पर्व को किसी जाती या पंथ के भेदभाव के बिना मनाते थे। उस समय ज्ञान प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण समझा जाता था। समाज में शिक्षक या गुरु को सर्वोच्च सत्ता का दर्जा दिया जाता था। महान सम्राट चंदरगुप्त ने अपने गुरु विष्णुगुप्त का अनुसरण करके दिखा दिखा दिया था कि गुरु अपने शिष्य को क्या बना सकता है। 
गुरु पूर्णिमा : वह दिन जब प्रथम गुरु का जन्म हुआ
सृष्टि के अस्तित्व या स्रोत का जो ज्ञान लोगों को है या फिर लोग जिस तरह से इसे समझते है, उसे आदियोगी एक नए रूप में ले गए। भगवान शिवशंकर को सबसे पहला गुरु माना गया है और जिस दिन वो सबसे पहले गुरु का जन्म हुआ उस दिन को गुरु पूर्णिमा कहा गया। गुरु पूर्णिमा वो दिन है जिस दिन पहले योगी योगी ने खुद को आदि गुरु अर्थात पहले गुरु के रूप में बदल लिया था। योगिक संस्कृति में शिव को भगवान नहीं माना जाता बल्कि आदि योगी अर्थात पहले गुरु के रूप में देखा जाता है। सृष्टि के स्रोत या अस्तित्व को आदि योगी एक नए आयाम में ले गए और उन्होंने अपने आप को सृष्टि और सृष्टि के स्रोत के बीच एक सेतू के रूप में बना लिया। उन्होंने मानव को बताया की यदि मानव इस मार्ग पर चलेगा, तो जिसे वह सृष्टि कर्ता कहता है, तो उसके और सृष्टि कर्ता के बीच कोई भेद नहीं रहेगा। तो इस प्रकार से यह दर्शनशास्त्र नहीं बल्कि एक विज्ञानं है। इस वैज्ञानिक पद्धति के माध्यम से मानव प्रकृति की उन सीमाओं से भी परे जा सकता है जिनमें वह सीमित है। 
लेकिन आधुनिकता के इस युग में हमने इस महान परम्परा को और इसके महत्व को खो दिया है। आज न तो एक शिक्षक का मान सम्मान रहा और न ही गुरु शिष्य की परम्परा। गुरु पूर्णिमा केवल कुछ आश्रमों तक सिमट कर रह गई है। सरकार के लिए ये विषय अव्यवहारिक होते जा रहे है। लोगों के लिए वैभव, धन दौलत के ज्यादा मायने हो गए है। शिक्षा का स्वरुप बदल गया है। लोगों के पास आध्यात्मिक शक्ति जगाने का समय नहीं है। इस ज्ञान को देने वाले भी निरंतर कम होते जा रहे है। शिक्षा में इस ज्ञान को कोई स्थान नहीं मिल पा रहा है। आज मानव केवल एक मशीन की भांति बनता जा रहा है। 
5 July Guru Poornima:
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।
Guru is given special importance in Indian culture. The Guru's position is considered to be above that of God. Kabir Ji has said in his speech, both Guru and God are in front of him, whose steps are implemented first, on this Kabir Ji has said that it is the Guru who has made me see God. Therefore, the first phase of Guru should be started.
The full moon of Ashadha month is celebrated as Guru Purnima. On this day, the Guru is worshiped by law.
The word Guru in Sanskrit means ignorance or eradication of darkness. The Guru eradicates the ignorance of the seeker so that he can experience the source of creation within himself. On this day, seekers show their gratitude to the Guru and receive his blessings. Guru Purnima is considered to be of special benefit for practicing yoga practice and meditation.
Before the British arrived in India, Guru Purnima was a holiday and people used to go to religious places to pray for their prosperity and thank their guru. On this day in the history of humanity, humans were reminded that their life is not predetermined, if they are ready to try, then every door of existence is open to them.
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
Until some time ago in our country it was believed that Guru has special glory in our life. Guru is paramount. 'Gu' means darkness and 'Ru' means one who removes darkness. This festival used to be most important in our country. People celebrated this festival without any caste or creed discrimination. At that time acquiring knowledge was considered most important. In society, the teacher or guru was given the status of supreme power. The great emperor Chandergupta followed his guru Vishnugupta and showed what a guru could make his disciple.
Guru Poornima: the day when the first Guru was born
Adiyogi took the knowledge of the existence or source of creation in a new form, or the way people understand it. Lord Shivshankar is considered to be the first Guru and the day he was born the first Guru was called Guru Purnima. Guru Purnima is the day on which Yogi first transformed himself into Adi Guru i.e. the first Guru. In Yogic culture, Shiva is not considered a god but is seen as an Adi Yogi i.e. the first Guru. The Adi Yogis took the source or existence of creation into a new dimension and they formed themselves as a bridge between the creation and the source of creation. He told the man that if man walks this path, then what he calls the creator, then there will be no distinction between him and the creator. So in this way it is not a philosophy but a science. Through this scientific method, human nature can go beyond the limits of which it is limited.
But in this era of modernity we have lost this great tradition and its importance. Today neither the honor of a teacher nor the tradition of Guru Shishya. Guru Purnima has been confined to only a few ashrams. These subjects are becoming impractical for the government. Splendor and wealth have become more important for the people. The nature of education has changed. People do not have time to awaken spiritual power. Those who give this knowledge are also becoming less and less. This knowledge is not getting any place in education. Today, humans are becoming just like a machine.




Friday, July 3, 2020

चीन का चारो ओर फैलता जाल

चीन का चारो ओर फैलता जाल
 :
हमेशा से ही चीन की नजर अपने पड़ोसियों की जमीन पर रही है।  चीन की सीमा भले ही 14 देशों के साथ लगती हो, लेकिन वह 23 देशों की जमीन या समुद्री सीमाओं पर नजर रखता है। चीन अब तक दूसरे देशों की 41 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर अपना कब्ज़ा कर चुका है। यानि चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति से अपने साइज़ को लगभग दुगना कर लिया है। पिछले 7 दशकों में चीन ने अपने मौजूदा हिस्से का 40% से ज्यादा हिस्सा दूसरे देशों से छिना है। चीन में 1949 में कम्युनिष्ट शासन की स्थापना हुई और तभी से चीन ने जमीन हड़पने की नीति शुरू कर दी। 
ईस्ट तुर्किस्तान
1949 तक चीन ईस्ट तुर्किस्तान की 16 लाख वर्ग कि. मी भूमि पर कब्ज़ा कर चुका था। यह इलाका उईगर मुस्लिमो का है तब से चीन इन लोगों पर जुल्म करता आ रहा है। 
मंगोलिया 
चीन  ने 1945 में मंगोलिया पर हमला कर दिया और 12 लाख वर्ग कि मी  का मंगोलिया के भू भाग पर कब्ज़ा कर लिया। यहां पर दुनिया के 25% कोयला भंडार है। 
तिब्बत 
1950 में चीन ने तिब्बत के 12 लाख वर्ग कि मी पर कब्ज़ा कर लिया।  यहां पर बहुत भारी मात्रा में खनिज सम्पदा है। यहां पर 80% बौद्ध आबादी है। यहां के धर्म गुरु दलाई लामा ने भारत की सरन ली हुई है। 
ताईवान 
1949 में चीन के राष्ट्रवादियों ने कम्युनिष्टों से डर कर ताईवान की शरण ली, चीन ताईवान को भी अपना हिस्सा मानता है। लेकिन ताईवान को अमेरिका का समर्थन हासिल है वह चीन का डटकर सामना कर रहा है। 35 हजार कि मी वाले समुंदर से घिरे ताईवान पर लम्बे समय से चीन की नजर है। 
भारत
 
ऐसे ही चीन ने 1962 में युद्ध करके भारत के 38 हजार वर्ग कि मी पर कब्ज़ा कर लिया। 5180 वर्ग कि. मी. का POK का इलाका पाकिस्तान ने चीन को दे दिया। इसके बाद भी चीन लगातार भारत के लद्दाक, अरुणाचल प्रदेश को भी अपना बताता रहा है। हालाँकि भारत ने चीन के साथ लगातार मैत्री करने की कोशिश की है लेकिन चीन की नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। 
दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर
चीन ने इस क्षेत्र के 7 देशों सटे 35 लाख वर्ग कि. मी. समुद्र के 90% क्षेत्र पर अपना दावा ठोक रखा है। यहाँ से ३ लाख करोड़ का सालाना व्यापार, 77 अरब डॉलर का तेल और 266 लाख करोड़ क्यूबिक फ़ीट गैस भंडार है जिन पर चीन का कब्ज़ा है। ऐसे ही चीन पूर्वी चीन सागर के 81 हजार वर्ग कि. मी. पर भी नजर रखे हुए है। 
नेपाल 
चीन ने नेपाल के कई इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया हे और नेपाल की जनता अपनी सरकार से नाराज है। इस वजह से चीन ने नेपाल के लोगों का ध्यान भटकाने के लिए भारत से सीमा विवाद छेड़ा हुआ है। चीन ने उधर नेपाल में बड़े पैमाने पर निवेश किया हुआ है जिस बहाने वह चीन को कब्जाने में लगा हुआ है और भारत के लिए भी अवरोध उत्त्पन कर रहा है। 
हांगकांग 
हांगकांग में चीन लगातार मानवाधिकारों का उलंघन करता आ रहा है। तीन दिन पहले चीन ने हांगकांग के लिए राष्ट्रिय सुरक्षा कानून पारित कर दिया है जिससे वहां के लोगों की आवाज को दबाया जा सके। 
चीन की विस्तारवाद नीति के कारण इस वक्त एशिया महाद्वीप में जंग के हालात  बने हुए है। एक  तो कोरोना के कारण चीन इस वक्त सभी मुल्कों की नजर में आया है, पूरी दुनियां इस संकट का कारण चीन को मान रही है जिससे अभी तक पूरी दुनियां में 5 लाख से ज्यादा लोग मर चुके है और अभी तक इस महामारी का कोई उपाय नहीं ढूंढ पाए है। पूरी दुनिया में चीन के प्रति गहरा रोष है। 


Saturday, June 20, 2020

21June 2020 : अदभुत संयोग

21 June 2020 को एक विशेष संयोग हो रहा है। यह दिन कई मायनों में विशेष होगा। वैसे तो बहुत से लोगों के लिए हर दिन विशेष होता है । लेकिन 21 June 2020 को कुछ खगोलीय और ऐतिहासिक घटनाएं घट रही है। आइये जानते हैं इस दिन के बारे में ।

खगोलीय महत्व :
21 जून को साल 2020 का पहला सूर्य ग्रहण लगेगा। इस सूर्य ग्रहण की खास बात ये है कि इस सूर्य ग्रहण में रिंग ऑफ फायर के रूप में एक अदभुत नजारा देखने को मिलेगा। ये सूर्य ग्रहण 9:15 सुबह शुरू होगा और दोपहर 3 बजकर 4 मिनट तक समाप्त होगा। रिंग ऑफ फायर का मतलब आग का छलला। यानी चांद सूरज को पूरी तरह से कवर नहीं करेगा बल्कि सूरज पीछे से दिखाई देता रहेगा।
साल का सबसे बड़ा दिन :

21 जून को साल का सबसे बड़ा दिन होता है और रात सबसे छोटी  होती है। 21 जून के बाद दिन छोटे होते जाते हैं और रात बड़ी होने लगती है। इस दिन सूर्य की किरणें 13 घंटे 58 मिनट और 12 सैकंड तक धरती पर रहती है। इस दिन कुछ देर के लिए हमारी परछाईं भी लुप्त हो जाती है।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस :

भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के सयुंक्त राष्ट्र को सितंबर 2014 में दिए सुझाव के बाद 21 जून 2015 को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया। ओशो का मानना था कि योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे है। योग एक विज्ञान है और स्वस्थ जीवन जीने की कला है।
फादर्स डे :
पिताओं के सम्मान में मनाया जाने वाला दिन। अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है।

Wednesday, June 17, 2020

अपनों से बढ़ती दूरियाँ ! हर छटा भारतीय डिप्रेशन का शिकार

अपनों से बढ़ती दूरियाँ ! हर छटा भारतीय डिप्रेशन का शिकार 
दोस्तों की महफ़िल सजे जमाना हो गया ,  लगता है जैसे खुल के जिए एक जमाना हो गया। 
काश कहीं मिल जाए वो काफिला दोस्तों का, जिंदगी जिये एक जमाना हो गया। 
अधिक भौतिकतावाद 
आज की जिंदगी क्या सच में ऐसी हो गई है ? यदि देखा जाए तो हर वक्त ऐसा नहीं था ? पिछले दो दशकों में भारत की पृष्ठभूमि में काफी परिवर्तन आया है। हम अपने प्राचीन परिवेश को छोड़कर भौतिकवाद की ओर आकर्षित हुए है। सफलता के मायने बदल चुके है। रिश्तों की जगह पैसों ने ले ली है। कम से कम समय में अधिक से अधिक आर्थिक आजादी पाने के लिए समाज का हर वर्ग दिन रात की सीमाओं को लाँगते हुए काम पर लगा हुआ है। वैसे तो हमारे देश में बेरोजगारी भी अपने चरम पर है लेकिन जिसको काम करना है उसके लिए दिन रात काम है। छोटे दुकानदार से लेकर बड़े बड़े से व्यापारी के लिए हर समय एक गला काट पर्तिस्पर्धा हो रही है। इस खेल में जीत हासिल करने के लिए हम खुद के लिए और परिवार के लिए समय नहीं निकाल पा रहे है और जब हमारे पास खुद के लिए और परिवार के लिए समय ही नहीं है तो पड़ोसियों के लिए कहां से समय होगा। 
हम अपनी महत्वक्षाओं के बीच निरंतर तनाव पूर्ण जीवन जी रहे है। और इस तनाव के कारण हम अकेले पड़ते जा रहे है, हम एक दूसरे से बात करने से डरने लगते है, हम दोस्त दुश्मन में अंतर नहीं कर पाते है। कई बार तो हम बात करने का साहस जुटाते भी है तो तब और भी तनाव बढ़ जाता है जब अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता है । और शायद हम कई बार अपने दोस्तों या करीबियों को खोने के डर से भी अपनी वास्तविक स्थिति पर चर्चा नहीं कर पाते है। लेकिन इसमें कसूर केवल किसी एक पक्ष का नहीं होता, इसमें दोनों ही पक्ष बराबर की भूमिका निभाते है। क्योंकि आखिर हम सब है तो इसी समाज का अंग और समाज में हर तरह के रंग शामिल है। पद एवंम प्रतिष्ठा 
 आज के समय में सामाजिक सहभागिता को समय की बर्बादी के तौर पर देखा जाता है। हम ज्यों ज्यों सफलता की अग्रसर होते जाते है त्यों त्यों समाज से दूर होते जाते है।  क्योंकि हम कभी भी असफल लोगों के साथ खड़ा होना या उनके साथ समय बिताना पसंद नहीं करते। लेकिन हर व्यक्ति के जीवन में वही क्षण लौटकर आते है फिर से हमे उसी समाज की जरूरत महसूस होने लगती है, जब बुढ़ापा आने लगता है, औलाद अपने काम धंधे में व्यस्त हो जाती है और अपने पास कोई काम नहीं रह जाता है। तब हमे अकेलेपन का एहसास होता है। यदि हम अपनों का ख्याल रखे, उनके सुख दुःख में शामिल हो तो यही प्यार हमारे लिए सुरक्षा का काम भी करता है। पद और प्रतिष्ठा सफल व्यक्ति की पहचान से जुड़े है लेकिन हमें किसी भी सूरत में मानवीय और सामाजिक गुणों को नहीं छोड़ना चाहिए। 
जानकारी का आभाव 
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकड़ों के अनुसार भारत की 36% जनसंख्या अवसादग्रस्त है। भारत और चीन डिप्रेशन के मामलों में सबसे  प्रभावित देशों में शमिल है।  यहाँ पर लोगों की एक मुख्य समस्या 'चिंता' होना है।चिंता के कारण आत्महत्या के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है। दूसरे यहां पर इस समस्या को बीमारी न मानना, हम चिंता व अवसाद को कोई बीमारी ही नहीं मानते और यही वजह है कि जब बात हाथ से निकल चुकी होती है तब जाकर डाक्टरी इलाज की सोची जाती है। भारत में लगभग 12% युवा डिप्रेशन का शिकार है। महिलाओं की संख्या पुरषों से भी ज्यादा है। अमेरिकी रिसर्च के अनुसार अकेलेपन से शरीर को उतना ही नुकसान होता है जितना हर रोज 15 सिगरेट पीने से होता है। विशेषज्ञों की राय में सबसे आम बीमारी ह्रदय रोग और डायबटीज नहीं बल्कि अकेलापन है। 
सोशल मीडिया वजह और हल दोनों 
वैसे तो आजकल सोशल मीडिया को युवाओं में अकलेपन की सबसे बड़ी वजह मन जा रहा है। फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसी सोशल साइट पर सैकड़ों दोस्त होते है, लेकिन असल में वो दोस्त नहीं है जो उनके साथ अपनेपन का अहसास करा सके. ऐसे दोस्त जो किसी को गलत करने से रोक सके। ऐसे दोस्त जो परिवार के सदस्यों की तरह हों, जिनका साथ होने से माँ बाप फिक्रमंद न हो। सोशल मीडिया पर इसका हल भी मिल जाता है इसके जरिये हम दुनिया भर के लोगों के अनुभव का लाभ उठा सकतें है। माना कि काम जरूरी है लेकिन यदि स्वास्थ्य उससे भी ज्यादा जरूरी है, यदि स्वस्थ रहेगें तो सभी सुख भोग सकते हैं, वरना काम करने के लायक भी नहीं रहेंगे ।

Sunday, June 14, 2020

अमेरिका में आयुर्वेद की धूम !

आज एक न्यूज चैनल बता रहा है कि किस प्रकार अमेरिका में भारतीय आयुर्वेद का डंका बज रहा है। किस प्रकार से अमेरिका में भारतीय जड़ी बूटियों पर रिसर्च हो रही है और वहां पर इन रिसर्च पर कितना पैसा खर्च किया जा रहा है। इन भारतीय जड़ी बूटियों से किस प्रकार असाध्य रोगों का इलाज किया जाए, इस प्रकार की खोज की जा रही है। इस खबर में ये भी बताया गया कि अमेरिकन भी अब हल्दी वाला दूध पीने लगे है। यदि आपने अभी तक ये सुधीर चौधरी की ये खबर नहीं देखी है तो मै एक लिंक दे रहा हूं जहां से आप फेसबुक पेज से ये खबर देख सकते हैं और अपने आप पर, अपने देश पर, और इन सबसे ज्यादा अपने उस आयुर्वेदिक ज्ञान पर गर्व कर सकते हैं जो विश्व में उस वक्त किसी के पास नहीं था। 
m.facebook.com/story.php?story_fbid=1299068160274164&id=494957864018535
भारत का हजारों वर्षों से आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में अटूट विश्वास रहा है। आज के आधुनिक ज्ञान की बहुत सी खोज तो हमारे उसी वर्षों पुरानी पद्धति से चुराई हुई है जिसको आज भारत में ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमने अपने इस अमूल्य ज्ञान को पुनर्जीवित करने का कभी ठोस प्रयास नहीं किया। हमने अपने ज्ञान विज्ञान को छोड़कर पश्चिमी देशों की शिक्षा को अपने भविष्य का आधार बनाया। हालांकि कुछ लोगों ने अपनी इस अमूल्य धरोहर को बचाने का असफल प्रयास किया, असफल इसलिए क्योंकि इस काम के लिए हमारे प्रशासन और सरकार कभी सकिर्य नहीं हुए ना ही इसको कोई महत्व दिया। आयुर्वेद के साथ हमेशा दोयम दर्जे का व्यवहार किया गया। और कमोबेश आज भी यही स्थिति है। आज भी हम विदेशों में आयुर्वेद पर हो रहे रिसर्च की बात तो करते है लेकिन भारत में इस पर हो रहे भेदभाव की बात नहीं करते। हमारे मीडिया हाउस कभी इस बात को नहीं बताते की किस प्रकार हमारी जड़ी बूटियों को विदेशियों द्वारा पेटेंट करवाया जा रहा है। आज कुछ लोग आयुर्वेद के प्रचार में लगे हुए हैं लेकिन सरकार के पूर्ण सहयोग के बिना उचित परिणाम नहीं मिलेंगे। 
आज हम स्वदेशी, आत्मनिर्भर, मेक इन इंडिया की भले ही बात करें लेकिन धरातल पर कुछ भी होता नजर नहीं आ रहा है। पूरी दुनियां महामारी से जूझ रही है और इस महामारी का अभी तक कोई इलाज न मिलना बड़ा ही चिंता का विषय बनता जा रहा है। ऐसे समय में यदि सरकार चाहती तो आयुर्वेद पर भरोसा कर सकती थी और इस महामारी की प्रकृति को देखते हुए आयुर्वेद इस बीमारी को नियंत्रण में कर सकता था। लेकिन पता नहीं सरकार के सामने ऐसी क्या मजबूरियां हैं जो ऐसे समय पर भी आयुर्वेदिक दवाओं के इस्तेमाल की इजाजत नहीं दे रही है। हमारी सरकार यदि सचमुच आत्मनिर्भर भारत बनाना चाहती है तो इसके लिए बहुत बड़े स्तर पर परिवर्तन करना होगा। हमे शुरू से अपनी शिक्षा का ढांचा ऐसा करना होगा कि हम ज्यादा से ज्यादा अपने ही बनाए उत्पादों का प्रयोग करे उन्हीं उत्पादों पर खोज करे और उन्हीं पर अपनी निर्भरता को कायम रखे। तभी जाकर हम आत्मनिर्भर भारत के सपने को पूरा कर पाएंगे।

Wednesday, June 3, 2020

कैसे बनेगें लोकल के लिए वोकल ?

कैसे बनेगें लोकल के लिए वोकल ?
क्या सरकार वास्तव मे भारतीय उत्पादों को बढ़ावा देना चाहती है ? क्या वास्तव में सरकार चाहती है कि हम आत्मनिर्भर बनें ? कैसे भारत विश्व गुरु बनेगा ? क्या सरकार ने ऐसी कोई नीति बनाई है जिससे हम भारतीय उत्पादों को विश्व के कोने कोने में पहुंचा सके ? आज मै आपसे इन्हीं कुछ सवालों पर बात कर रहा हूँ। 
 कोरोना से पूरा विश्व लड़ाई लड़ रहा है और सभी देश एक दवा की खोज में लगे हुए है ताकि इस महामारी से निजात मिल सके। लेकिन अभी तक किसी भी देश से ऐसी कोई दवा नहीं बन पाई है जो इस बीमारी में कारगर हो। अभी तक कोरोना के मरीज़ को इलाज के नाम पर केवल प्रयोग किया जा रहा है। अलग अलग बीमारियों की दवा को कोरोना मरीज़ों पर आजमा के देखा जा रहा है। यहां तक की उन दवाओं का भी इस्तेमाल किया जा रहा है जिनकी अनुमति WHO नहीं देता है। यानि जिन दवाओं का हमें फायदे की बजाय नुकसान ज्यादा होता है वो दवाये भी कोरोना मरीज़ों को दी जा रही है। हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन, AIDS, TB, मलेरिया आदि दवाओं को आजमाया जा रहा है। हालाँकि कुछ दवाएं बहुत से देशों में प्रतिबंधित है फिर भी इनका इस्तेमाल किया जा रहा है। 
                   किसी भी बीमारी का इलाज कई पद्धतियों से संभव हो सकता है। जैसे एलोपैथी, ज्यादातर इसी पद्धति से किसी भी प्रकार की बीमारी का इलाज करने की कोशिश की जाती है। इस पद्धति से कई असाध्य रोगों पर विजय संभव हो पाई है। हालाँकि इलाज की ये विधि कई नए रोगों को भी जन्म दे सकती है। इसके अलावा यूनानी, आयुर्वेदिक, होमिओपेथी और इसके अलावा एक पद्धति और है जो हर देश में पाई जाती है ये चिकित्सा पद्धति हर देश में वहां के वातावरण, संस्कृति और खान पान पर आधारित होती है। और बहुत से रोगों का इलाज इन पद्धतियों से किया जाता है या यूँ समझ लीजिये जिस रोग का इलाज हम किसी एक पद्धति से नहीं कर पाते है तो हम इलाज की दूसरी पद्धतियों का सहारा लेते है। अब यदि भारत की बात की जाए तो यहां पर भी कोरोना के इलाज के लिए एलोपैथी विधि ही इस्तेमाल की जा रही है। 
                 
हालाँकि भारत की संस्कृति और खान पान के हिसाब से आयुर्वेद बहुत ही विश्वसनीय और कारगर पद्धति वर्षों से आजमाई जा रही है। आयुर्वेद तो भारत की पहचान है, समय के अलग अलग कालखंडों में हमारे आयुर्वेद आचार्यों में धन्वंतरि, च्यवन, चरक आदि ने हर प्रकार के रोग का निदान आयुर्वेद में किया है। हमारी आयुर्वेद पद्धति तो आज की मेडिकल साइंस से कहीं आगे थी। लेकिन आज उसी संस्कृति के लोग अपनी अनमोल चिकित्सा पद्धति को छोड़कर केमिकल युक्त चिकित्सा पद्धति को अपनाते जा रहे है। आजादी के बाद भी हमने अपनी आयुर्वेदिक प्रणाली की और कभी ध्यान नहीं दिया और आज भी हम वहीं खड़े हैं जैसे आजादी के समय पर थे। मतलब हमने अपनी पारम्परिक चिकित्सा पद्धति की न तो परवाह की और न ही इसे ऊपर उठाने का प्रयत्न किया। जो थोड़ा बहुत काम इस ओर हुआ है वो व्यक्तिगत तौर पर हुआ है उसमें सरकार की ना के बराबर भूमिका है। 
                हालाँकि सरकार ने आयुर्वेद को बढ़ावा देने के लिए आयुष मंत्रालय भी बनाया हुआ है लेकिन आज तक उस विभाग की कोई उपलब्धि पता नहीं चल सकी है। लेकिन आज भी यदि हम आयुर्वेद को पुनः वही मान सम्मान दिलाने का प्रयत्न करें तो हमारे हाथ बहुत ही अच्छा अवसर आया हुआ है वैसे भी कहावत है जब जागो तभी सवेरा। कोरोना काल में सरकार के पास एक बहुत बड़ा अवसर आया है जिससे एक पंथ और कई काज हो सकते है । जब किसी के पास कोरोना की कोई दवा नहीं थी और केवल दूसरी बीमारियों की दवा को ही आजमाना था तो सरकार ने आयुर्वेद को क्यों नहीं आजमाया। जबकि आयुर्वेद में बहुत सी जड़ी बूटियां इस जैसी बीमारी को सफलता पूर्वक ख़त्म करने में सक्षम है। इसका प्रमाण गुजरात राज्य में सामने भी आ चुका है, यदि आप लोगों को इसकी जानकारी नहीं है तो 30 मई का गुजरात का दैनिक भास्कर अख़बार आप देख सकते है। आयुर्वेद के इलाज से 586 Corona symptomatic patients ठीक हो चुके हैं, पूरी न्यूज आप इस लिंक पर देख सकत  हैं। इसका एक लिंक मै यही पर दे रहा हूँ :
                  इसी रिपोर्ट से आप देख सकते हो की आयुर्वेद इस बीमारी में कितना कारगर साबित हो सकता है। इतना ही नहीं यदि सरकार शुरू से इस ओर ध्यान देती तो आज तक करोड़ो का निर्यात हमारी आयुर्वेदिक कंपनियां कर चुकी होती। हमारे प्रधानमंत्री कह रहे है आत्मनिर्भर बनो लेकिन कैसे बने जब सरकार ही आगे जाने का रास्ता बंद करके बैठी है। कुछ लोगों ने प्रयास भी किया, वो स्वास्थ्य मंत्री से भी मिले, आयुर्वेदिक इलाज शुरू करवाने को लेकर, यहां तक की PM कार्यालय को भी कई कई पत्र लिखे गए, लेकिन आयुर्वेदिक इलाज के लिए कोई अनुमति नहीं दी गई। इसका मतलब या तो सरकार को आयुर्वेद पर भरोसा नहीं या फिर सरकार किसी दबाव में है। यदि सरकार किसी दबाव में है तो कैसे लोकल को ब्रांड बनाया जा सकता है? जबकि आयुर्वेद को भारत का सबसे जबरदस्त ब्रांड बनाया जा सकता है। क्या केवल टीवी पर लोकल के लिए वोकल बोलकर काम चल जाएगा ? क्या टीवी पर बोलकर ही हम आत्मनिर्भर हो जाएंगे? जब तक सरकार और उच्च पदों पर बैठे अधिकारी इस और ठोस प्रयास नहीं करेंगें तब तक न तो हम लोकल ब्रांड बना पायेगें और न ही हम आत्मनिर्भर बन सकेंगें। हमारे प्रधानमंत्री की लोकप्रियता विश्व में सबसे ज्यादा है उन्हें ही आयुर्वेद का ब्रांड एंबसेडर बनना चाहिए। 
                      अंत में केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि केवल टिक टॉक को डिलीट करने से काम नहीं चलने वाला क्योंकि हमारे मोबाइल में 90% ऐप या तो चाईनीज है या उनमें सबसे ज्यादा चाइना का पैसा लगा हुआ है। तो यदि चाइना को कोई आर्थिक नुकसान पहुंचाना चाहते हैं तो हमें ये सभी ऐप डिलीट करने होंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं सकेगा! इससे बेहतर है हम अपने उत्पाद को लोकप्रिय बनाएं। ताकि विश्व में ज्यादा से ज्यादा हमारे उत्पाद बिक सके। एक वीडियो का लिंक दे रहा हूं यदि आपके पास टाइम हो तो इस वीडियो को जरूर देखना।
https://youtu.be/CqEUaXwUjZE

How to create a vocal for local?
Does the government really want to promote Indian products? Does the government really want us to be self-sufficient? How will India become world guru? Has the government made any such policy so that we can deliver Indian products to every corner of the world? Today I am talking to you on these few questions.
 The whole world is fighting a battle with Corona and all the countries are engaged in searching for a drug to get rid of this epidemic. But so far no such medicine has been made from any country which is effective in this disease. So far, the corona patient is being used only in the name of treatment. The medicine of different diseases is being tried on the corona patients. Even those drugs that WHO does not allow are being used. That is, the medicines, which harm us more than the benefits, are being given to the corona patients. Drugs like hydroxy chloroquine, AIDS, TB, malaria etc. are being tried. Although some medicines are banned in many countries, they are still being used.
                   Treatment of any disease can be possible in many ways. Like allopathy, mostly this method tries to cure any type of disease. This method has led to victory over many incurable diseases. However, this method of treatment can also give rise to many new diseases. Apart from this, Unani, Ayurvedic, Homeopathy and moreover there is another method which is found in every country, these systems of medicine are based on the environment, culture and food in every country. And many diseases are treated with these methods, or understand that if we are not able to cure any one method, then we resort to other methods of treatment. Now if we talk about India, here too the allopathy method is being used to treat corona.
                  However, Ayurveda is a very reliable and effective method to be tried for years according to the culture and food of India. Ayurveda is the identity of India, in different periods of time, in our Ayurveda masters, Dhanvantari, Chyavan, Charaka etc. have diagnosed all types of diseases in Ayurveda. Our Ayurveda system was far ahead of today's medical science. But today people of the same culture are abandoning their precious medical system and adopting chemical-rich medical system. Even after independence, we never paid any attention to our Ayurvedic system and even today we stand there as if we were at the time of independence. Meaning, we neither cared for our traditional medical system nor tried to elevate it. The little work that has been done on this side has been done personally, in which the government has an equal role.
                Although the government has also created the Ministry of AYUSH to promote Ayurveda, but till date no achievements of that department have been known. But even today, if we try to bring the same honor to Ayurveda again, then a very good opportunity has come in our hands. Anyway, when wake up then only morning. In the Corona period, a huge opportunity has come to the government which may lead to a cult and many hides. When no one had any medicine for corona and only wanted to try medicine for other diseases, then why did the government not try Ayurveda. While many herbs in Ayurveda are able to successfully eliminate such disease. Evidence of this has also come to the fore in the state of Gujarat, if you do not know about it, then you can see Dainik Bhaskar newspaper of Gujarat on 30th May. 586 Corona symptomatic patients have been cured with the treatment of Ayurveda, you can see the whole news on this link. Here is a link to this:


From this report you can see how effective Ayurveda can be in this disease. Not only this, if the government had paid attention to this from the beginning, by then our Ayurvedic companies would have exported crores. Our Prime Minister is saying to be self-reliant but how to become one when the government is sitting on the path to go ahead. Some people also tried, they also met the Health Minister, many letters were written to start the Ayurvedic treatment, even to the PM office, but no permission was given for the Ayurvedic treatment. This means either the government does not trust Ayurveda or the government is under some pressure. If the government is under some pressure then how can the local be branded? While Ayurveda can be made India's most powerful brand. Will speaking work for local only on TV be done? Will we become self-sufficient only by speaking on TV? As long as the government and the officials in high positions do not make this more concerted effort, neither will we be able to create a local brand nor will we become self-sufficient. Our prime minister has the highest popularity in the world, he should become the brand ambassador of Ayurveda.
In the end, I would just like to say that just deleting Tick Talk will not work because 90% of our mobile apps are either Chinese or they have the maximum amount of Chinese money. So if we want to cause any economic loss to China, then we have to delete all these apps. But this will not happen We better make our product popular. So that more and more of our products can be sold in the world. I am giving a link to a video, if you have time, then definitely watch this video.

https://youtu.be/CqEUaXwUjZE

Sunday, May 31, 2020

UPSC (संघ लोक सेवा आयोग) : परीक्षा जानकारी

UPSC (संघ लोक सेवा आयोग)
 स्थापना :
लोकसेवा आयोग की स्थापना अक्टूबर 1926 में की गई थी। देश की आजादी के बाद अक्टूबर 1950 में इसका नाम बदलकर संघ लोक सेवा आयोग रख दिया गया।
उद्देश्य :
इसका उद्देश्य भारतीय सिविल सेवा परीक्षा का आयोजन किया जाना है जिसके माध्यम से IAS, IPS, IFS, IRS, IES, ESC, CDS, NDA आदि सेवाओं में भर्ती की जाती है।
भर्ती प्रक्रिया के चरण :
UPSC इस प्रक्रिया को तीन चरणों में पूरा करती है।
1. पहले चरण में प्रारम्भिक परीक्षा 
2. दूसरे चरण में मुख्य परीक्षा
3. साक्षात्कार
पहला चरण प्रारम्भिक परीक्षा :
इसका आयोजन जून- जुलाई मास में होता है। इसमें दो पेपर होते हैं। 
1. जनरल स्टडी (GS)
2. C-SAT (Civil Services Aptitude test)
प्रारम्भिक परीक्षा मुख्य रूप से GK पर आधारित होती है।
इस परीक्षा में 100 प्रश्न पूछे जाते है, प्रत्येक प्रश्न 2 अंक का होता है। इस परीक्षा के लिए 2 घंटे का समय दिया जाता है।
इसी परीक्षा के आधार पर आपको मुख्य परीक्षा में शामिल होने की अनुमति दी जाती है।
प्रारम्भिक परीक्षा पेपर -ll
इसमें सामान्यत: जनरल रीजनिंग से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं। यह परीक्षा 200 अंकों की होती है जिसमें 80 प्रश्न होते हैं। इस परीक्षा के लिए समय 2 घंटे होता है।
दोनों प्रारम्भिक परीक्षा में वस्तुनिष्ठ प्रश्न होते हैं व इसके अंक मुख्य परीक्षा में शामिल नहीं होते हैं। इसमें आपको मुख्य परीक्षा देने के लिए कम से कम 66अंक लेने होते हैं। 
इसके अलावा इन दोनों परीक्षाओं में 1/3 नेगेटिव मार्किंग का प्रावधान किया गया है। 
दूसरा चरण में मुख्य परीक्षा:
इस परीक्षा के कुल 9 पेपर होते है। जो कि वर्णनात्मक यानी लिखित होते हैं। प्रत्येक पेपर के लिए समय 3 घंटे होता है। English व Hindi को छोड़कर सभी पेपर 250-250 अंकों के होते हैं। यह परीक्षा कुल 1750 अंकों की होती है
1. संविधान की 21वीं अनुसूची में शामिल कोई भी एक भाषा आपके अनुकूल।
2. General English
3. निबंध
4, 5, 6, 7 (सामान्य अध्ययन)
पहले पेपर में भारतीय संस्कृति, इतिहास, भूगोल और समाज पर आधारित होता है।
दूसरे पेपर में संविधान, शासन व्यवस्था, सामाजिक न्याय व अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर आधारित होता है।
तीसरा पेपर ज्ञान विज्ञान, सुरक्षा-आपदा प्रबंधन, आर्थिक विकास, व पर्यावरण से संबंधित होता है।
पेपर चार नीति शास्त्र, सत्य निष्ठा और अभिरुचि पर आधारित होता है।
8-9 पेपर आपके द्वारा चुने गए किसी भी विषय के दो पेपर होते हैं।
अन्तिम चरण साक्षात्कार का होता है
साक्षात्कार 275 अंकों का होता है। किसी भी भारतीय भाषा में आप साक्षात्कार दे सकते हैं। विज्ञापित पदों के तीन गुना उम्मीद्वारों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाता है। और इनमें से ही सफल उम्मीदवारों का चयन किया जाता है।
योग्यता :
इस परीक्षा के लिए स्नातक अथवा समकक्ष होना अनिवार्य योग्यता है। इसके अलावा फाइनल ईयर के छात्र भी आरम्भिक परीक्षा दे सकते हैं। लेकिन मुख्य परीक्षा से पहले उन्हें स्नातक होना आवश्यक है।
No of Attempts : इस परीक्षा के लिए आपको कितने मौके मिल सकते हैं। 
Gen.                   6 Attempts
OBC.                  9 Attempts
Sc/ST.        Any No. of Attempts in the Age limit
Age:
Gen.                 21-32 Years
OBC.                 21-35
Sc/ST.              21-37

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UPSC (Union Public Service Commission)

 Installation:

The Public Service Commission was established in October 1926. After the independence of the country, it was renamed as Union Public Service Commission in October 1950.

an objective :

The aim is to conduct the Indian Civil Services Examination through which recruitment is done in the services of IAS, IPS, IFS, IRS, IES, ESC, CDS, NDA etc.

Steps of recruitment process:

UPSC completes this process in three stages.

1. Preliminary Examination in Phase I

2. Phase II Main Examination

3. Interview

Phase I Preliminary Examination:

It is held in the month of June-July. It consists of two papers.

1. General Study (GS)

2. C-SAT (Civil Services Aptitude test)

The Preliminary Examination is mainly based on GK.

100 questions are asked in this exam, each question carries 2 marks. Time of 2 hours is given for this examination.

On the basis of this exam, you are allowed to appear in the main examination.

Preliminary Examination Paper -ll

Generally questions related to General Reasoning are asked in this. This exam is of 200 marks and consists of 80 questions. The time for this examination is 2 hours.

Both the preliminary examination consists of objective type questions and its marks are not included in the main examination. In this, you have to take at least 66 marks to take the main exam.

Apart from this, provision of 1/3 negative marking has been made in both these exams.

Main Examination in Phase II:

There are total 9 papers of this exam. Which are written descriptively. The time for each paper is 3 hours. All papers except English and Hindi are of 250-250 marks. This exam is of total 1750 marks.

1. Any one language included in the 21st Schedule of the Constitution suits you.

2. General English

3. Essay

4, 5, 6, 7 (General Studies)

The first paper is based on Indian culture, history, geography and society.

In the second paper, the constitution is based on governance, social justice and international relations.

The third paper deals with knowledge science, security-disaster management, economic development, and the environment.

The paper is based on four ethics, true allegiance and interest.

8-9 papers are two papers of any subject you choose.

The final stage is the interview

Interview is of 275 marks. You can interview in any Indian language. Three times candidates for advertised positions are called for interview. And from these, successful candidates are selected.

worth :

Graduation or equivalent is a mandatory qualification for this exam. Apart from this, final year students can also take the preliminary examination. But they are required to graduate before the main examination.

No of Attempts: How many chances you can get for this exam.

Gen. 6 attempts


OBC. 9 attempts


Sc / ST. Any No. of attempts in the age limit


Age:


Gen. 21-32 Years


OBC. 21-35


Sc / ST. 21-37




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Wednesday, May 27, 2020

सोनू सूद : मज़दूरों के मसीहा

सोनू सूद : मज़दूरों के मसीहा
आज मै जिस शख्सियत के बारे में बात कर रहा हूं वह बॉलीवुड नगरी का जाना माना चेहरा सोनू सूद है। इस अभिनेता ने पिछले कई दिन से उन लोगों की मदद की है जिनके लिए सरकार और अधिकारियों के दरवाजे बंद हो चुके थे। अब सोनू सूद लगातार अपने काम को अंजाम देने के लिए लगा हुआ है। वह मुंबई से अपने घर जा रहे प्रवासी लोगो को बसों व गाड़ियों से उनके घर भेज रहे हैं। वह भी बिना किसी भेदभाव के और सारा खर्च खुद वहन कर रहे हैं, यहां तक कि रास्ते के लिए खाना भी साथ में देकर भेजते हैं।
जैसे उनके बारे में खबरें आ रही है सोनू सूद अभी तक 12000 प्रवासी लोगों को उनके घरों तक पहुंचा चुके है। सोनू सूद लगातार लोगों को अपना फ़ोन न. दे रहे है ताकि बाहर जाने वाले लोग उनसे सीधा संपर्क कर सके। उन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट के जरिये अपना फोन न. शेयर किया है। इस पोस्ट में लिखा है 'मेरे प्यारे श्रमिक भाइयों और बहनों अगर आप मुंबई में है और अपने घर जाना चाहते है तो कृप्या इस नंबर पर कॉल करें 18001213711 और बताएं कि आप कितने लोग है, अभी कहाँ पर है और कहाँ जाना चाहते है। मै और मेरी टीम जो भी मदद कर पायेगें हम जरूर करेंगें।' एक जानकारी के अनुसार उनकी टीम 28 मई को हाजी अली से UP के लिए 10 बसे भेजने के लिए प्लानिंग कर रही है। 
यह सच में मानवता की मिशाल है। वहीँ दूसरी ओर हमारे नेता गण जो इस वक्त भी इन लोगों पर राजनीति कर रहे है कोई बस भेजने की परमीशन मांग रहा है तो कोई रेल यात्रियों की सूची मांग रहा है। और दोनों एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगा रहे है कि उनकों मदद नहीं करने दी जा रही है। ये वही नेता है जो वोट के वक्त दिन रात इनके दरवाजे खटखटाते रहते है तब इनको किसी की परमिशन नहीं चाहिए होती है। लेकिन अभी सब नेता गण एक दूसरे का दोष निकालने में लगे हुए है, उन गरीब लोगों की किसी को कोई चिंता नहीं है। लेकिन नेतागण ही क्यों हमारे तो अधिकारीगण भी नेताओं की इस लड़ाई का तमासा देख रहे है। आखिर व्यवस्था तो अधिकारिओं को ही करनी होती है, तो हमारे अधिकारी क्यों नहीं सोनू सूद की तरह इन लोगों के लिए काम करते। 
इससे पहले लेख में मैंने लिखा था कि कितने कष्ट सहन करते हुए ये प्रवासी लोग अपने घरों को जा रहे है मै उस लेख का एक लिंक यहां पर दे रहा हूँ आप उस पोस्ट को पढ़ सकते है। Corona में दिखी भारत की तस्वीर
https://mehlamedia.blogspot.com/2020/05/corona_24.html

यदि हमारे नेता और अधिकारी जिम्मेदारी के साथ इस काम को करते तो समस्या इतनी गंभीर नहीं होती। कितना विकास किया है देश में ये तो पता लग ही गया, इस संकट की घड़ी में एक बात और स्पष्ट हो गई नेता किसी का नहीं होता उसको केवल कुर्सी चाहिए होती है। ये बहुत ही दुःखद है हमारे देश में एक भी ऐसा नेता नहीं जिसने खुद बाहर आकर इन लोगों की मदद की हो। और हम ऐसे नेता लोगों को अपना आदर्श मानते है, इनको वोट दिलाने के लिए हम दिन रात लगे रहते है, एक दूसरे से इनके लिए लड़ते झगड़ते रहते है। ये सब कब ठीक होगा, कैसे ठीक होगा, अब तो ऐसा लगने लगा है हम लोग एक नई गुलामी की ओर बढ़ रहे है। 

Sonu Sood: Workers' Messiah

The person I am talking about today is Sonu Sood, the known face of Bollywood city. This actor has helped those people for whom the doors of the government and officials were closed for the last several days. Now Sonu Sood is constantly engaged to carry out his work. He is sending migrant people going from Mumbai to his home in buses and trains. He is also bearing all expenses without any discrimination, even sending food along the way.

As news is coming about them, Sonu Sood has so far transported 12000 migrants to their homes. Sonu Sood constantly gives people his phone So that outgoing people can contact them directly. He has shared his phone number through a post on social media. In this post it is written, 'My dear laborers brothers and sisters, if you are in Mumbai and want to go to your home, please call this number 18001213711 and tell how many people you are, where you are now and where you want to go. We and my team will do whatever we can to help. ' According to an information, his team is planning to send 10 buses for UP from Haji Ali on May 28.

This is truly a manifestation of humanity. On the other hand, our leader Gana, who is doing politics on these people even at this time, is asking for permission to send a bus, while some is asking for a list of railway passengers. And both are accusing each other that they are not being allowed to help. This is the same leader who keeps on knocking on their doors day and night during the vote, then they do not need anyone's permission. But right now all the leaders are engaged in finding fault with each other, no one has any concern for those poor people. But why are the leaders, even our officials, watching the battle of the leaders. After all, the authorities have to make arrangements, so why would not our officials work for these people like Sonu Sood.

The problem would not have been so serious if our leaders and officers had done this work responsibly. How much development has been done in the country, it has been known that in this time of crisis, one more thing has become clear that the leader does not belong to anyone, he only needs a chair. It is very sad that there is not a single leader in our country who has come out and helped these people. And we consider such leaders as our ideals, we are engaged day and night to get votes for them, and fight each other for them. When will all this be right, how will it be okay, now it seems that we are moving towards a new slavery.

Sunday, May 24, 2020

Corona में दिखी भारत की तस्वीर

Corona में दिखी भारत की तस्वीर 
दुनिया में 53 लाख से ज्यादा लोगों बीमार करने वाला और करीब साढ़े तीन लाख लोगों को मौत की नींद सुलाने वाले वायरस ने अब भारत में कहर भरपाना शुरू कर दिया है। अब भारत में इसके रोगियों की संख्या एक लाख तीस हजार से ऊपर निकल चुकी है। और चार हजार के करीब लोग अपनी जान गंवा चुके है। अब तो हर रोज भारत में पांच हजार से ज्यादा लोग इस बीमारी का शिकार हो रहे है और आने वाले 2 महीने में संक्रमितों की संख्या में ये इससे भी ज्यादा इजाफा होगा। Lockdown की सरकार की नीति से संक्रमण फैलने की तीव्रता तो अवश्य कम हुई है लेकिन जो बढ़त हमने शुरू में बनाई थी वह अब खोते जा रहे है। और संक्रमण भी अब रफ़्तार पकड़ने लगा है। संक्रमण अब शहरों से गाँव की ओर बढ़ चला है।
प्रवासी जनता की समस्या 
Lockdown के कारण उन लोगों के सामने रोज़ी रोटी का बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया जो लोग कल कारखानों की रीढ़ समझे जाते थे। इतना ही नहीं ये वही लोग है जिनके दम पर इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था खड़ी हो पाई है।  आज हर छोटे बड़े शहर में इन्हीं लोगों के हाथों से तरक्की की इबारत लिखी गई है। लेकिन इन चमचमाती रौशनी से भरे शहरों में ये लोग आज भी अपने उसी सपने के साथ जीये जा रहे है जो सपना अपने गाँव से देखकर चले थे, एक अच्छी जिंदगी अपने बच्चों के लिए, एक सुरक्षित भविष्य अपने बुढ़ापे के लिए। आज उसी सपने को अपने पैरों तले रोंधते हुए ये लोग वापिस अपने मूल स्थान की ओर जा रहे है। 
आज ये जो दृश्य हम लोग और हमारी सरकार देख रही है ये हमारी सरकार और इसके चलाने वालों के लिए बहुत बड़ा प्रशन है। क्या हमने यही विकास किया है और यदि यही विकास की परिभाषा है तो ऐसा विकास नहीं चाहिए। सैंकड़ों मीलों का सफ़र पैदल तय करना, किसी के सर पर सामान है तो किसी के गोद में बच्चे है, किसी की पीठ पर बीमार व लाचार माता पिता है तो, कही पर गर्भवती महिलायें सड़क पर ही संतान जन्म देने को विवस है। एक 15 वर्ष की लड़की अपने बीमार बाबा को सैंकड़ों मील साइकिल पर लेके जाती है और हम अब उस लड़की को साइक्लिंग का ऑफर दे रहे है यदि उस लड़की या उस जैसी हजारों लाखों बच्चों को समय पर अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ होता तो शायद हिंदुस्तान आज ये सीन नहीं देख रहा होता। हमारे नीति निर्माताओं को आज का भारत देखना होगा, हमारी सरकार जो जनता की सरकार कहलाती है उसे अपने कथनी और करनी एक समान करनी होगी। 

इस Corona महामारी ने देश को आईना दिखाया है भारत की तरक्की का। ये वो  सच्चाई है जिससे देश के बहुत से लोग अंजान थे और हमारे नेताओं के सुर में सुर मिला के कहते थे 21 वीं सदी का भारत विश्व गुरु बनने जा रहा है। विश्व गुरु की नींव कभी भी ऐसी नहीं हो सकती। आज से हमारे नीति निर्माताओं को देश के लिए कुछ नया सोचने की जरुरत है।  बेशक आज हम बुलेट ट्रैन चलाये लेकिन उस ट्रैन के ट्रैक बिछाने वालों को भी हमे नहीं भूलना है। हमे उन लोगों को बुनयादी सुविधाएं देनी होगी ताकि भविष्य में उन लोगों को फिर से प्रवास का दंश न झेलना पड़े। तभी सही मायने में हम विश्व गुरु बनने की ओर अग्रसर होंगे। 

Corona में दिखी भारत की तस्वीर 

The virus, which has sickened more than 5.3 million people in the world and killed nearly three and a half lakh people, has started wreaking havoc in India. Now the number of its patients in India has crossed one lakh and thirty thousand. And close to four thousand people have lost their lives. Now every day more than five thousand people are falling victim to this disease in India and in the coming 2 months, the number of infected people will increase even more. The government policy of Lockdown has certainly reduced the intensity of the spread of infection, but the gains we had made earlier are now being lost. And the infection is also catching pace now. The transition has now moved from cities to villages.

Problem of diaspora

The lockdown caused a huge crisis of livelihood to those who were considered to be the backbone of the factories yesterday. Not only this, these are the people on whose own such a large economy has been able to stand. Today, in every small and big city, the writing of promotion has been written by these people. But in these glittering light-filled cities, these people are still living with the same dreams that Sapna had gone through from her village, a good life for her children, a safe future for her old age. Today, with the same dream under their feet, these people are going back to their original place.

Today this scene which we and our government are seeing, is a big question for our government and its runners. Have we made this development and if this is the definition of development, then such development should not be done. Traveling for hundreds of miles, walking on one's head, having children on one's head, sick and helpless parents on one's back, then pregnant women are confident of giving birth to children on the road. A 15-year-old girl takes her sick Baba on a bicycle for hundreds of miles and we are now offering cycling to that girl. If that girl or thousands of similar children had the opportunity to show their talent on time, then perhaps India would not be watching this scene today. Our policy makers will have to see today's India, our government, which is called the people's government, will have to do its utterances and do the same.

This Corona epidemic has shown the country a mirror of India's progress. This is the truth from which many people of the country were unaware and in the tone of our leaders, they used to say that 21st century India is going to become world guru. The foundation of Vishwa Guru can never be like this. From today our policy makers need to think of something new for the country. Of course, today we run a bullet train, but those who are laying the track of that train do not forget us. We will have to provide basic facilities to those people so that in future they will not have to bear the brunt of migration again. Only then will we truly move towards becoming a world guru.

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